महंगाई की मार: आम आदमी कैसे जूझ रहा है?

लेखक: एक आम नागरिक की आवाज़

“प्याज़ फिर 80 रुपये किलो हो गया है!”
“सब्ज़ियाँ खरीदने से पहले सोचना पड़ता है!”
“गैस सिलेंडर भरवाना अब लग्ज़री जैसा लगता है!”

इन बातों से शायद ही कोई भारतीय अनजान होगा। महंगाई अब खबरों तक सीमित नहीं रही, ये अब हर घर का हिस्सा बन चुकी है। सवाल यह है कि क्या कोई सुन रहा है आम आदमी की आवाज़? और सबसे अहम – वो इससे कैसे जूझ रहा है?


रोजमर्रा की ज़रूरतें भी महंगी

चाहे वो दूध हो, आटा, दाल या सब्ज़ी – हर चीज़ के दाम पिछले कुछ सालों में लगातार बढ़े हैं। जो परिवार पहले महीने की शुरुआत में राशन भर लेते थे, अब वही सोचते हैं कि “किस चीज़ में कटौती की जाए?”

एक मध्यम वर्गीय परिवार के लिए अब त्योहार मनाना, बच्चों की पढ़ाई कराना और मेडिकल खर्च संभालना, सब कुछ एक चुनौती बन चुका है।


वेतन वही, खर्च दुगुना

अक्सर देखा गया है कि निजी क्षेत्र में काम करने वालों की सैलरी कई सालों तक वैसी की वैसी रहती है, लेकिन खर्च हर साल बढ़ जाता है। महंगाई भत्ता (DA) सिर्फ सरकारी कर्मचारियों को राहत देता है, लेकिन देश की बड़ी आबादी प्राइवेट सेक्टर या असंगठित क्षेत्र में काम करती है – जिन्हें कोई भत्ता नहीं मिलता।


गरीबों और छोटे व्यापारियों की दोहरी मार

जो दिहाड़ी मज़दूर या छोटे दुकानदार हैं, उनके लिए महंगाई दोहरा संकट है – एक तरफ सामान महंगा है, दूसरी तरफ ग्राहक कम हो रहे हैं। कई लोग अब सिर्फ ज़रूरी चीज़ें खरीदते हैं, जिससे छोटे व्यापारियों की कमाई पर असर पड़ा है।


मानसिक और सामाजिक असर

महंगाई सिर्फ जेब पर असर नहीं डालती, ये दिमाग और रिश्तों पर भी असर डालती है। पैसों की चिंता में पति-पत्नी के झगड़े बढ़ते हैं, तनाव और अवसाद की स्थिति बनने लगती है। कई बार बच्चों की पढ़ाई या बुजुर्गों के इलाज से समझौता करना पड़ता है।


आम आदमी की जुगाड़ू शक्ति

फिर भी, आम आदमी हार नहीं मानता। वह सब्ज़ी बेचने वाले से भाव कम करवा लेता है, EMI की तारीख आगे बढ़वा लेता है, एक गैस सिलेंडर में दो महीने निकालने की कोशिश करता है। भारत का आम नागरिक समस्याओं से नहीं डरता, उन्हें ‘मैनेज’ करता है।


निष्कर्ष

महंगाई सिर्फ एक आर्थिक समस्या नहीं, यह एक सामाजिक और मानवीय मुद्दा बन चुका है। सरकारों को सिर्फ आंकड़ों से नहीं, ज़मीनी हकीकत से फैसला लेना होगा। और जनता को भी अब सिर्फ सहना नहीं, सवाल पूछना सीखना होगा।

क्योंकि जब आम आदमी की आवाज़ दबा दी जाती है, तो व्यवस्था सिर्फ अमीरों की रह जाती है।

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