महिलाओं की सुरक्षा: सिर्फ कानून काफी है क्या?

हम हर बार एक दर्दनाक घटना के बाद गुस्से में कहते हैं – “कानून सख्त होना चाहिए!”
फिर कुछ समय बीतता है, सब शांत हो जाता है।
पर सवाल वही रह जाता है – क्या महिलाओं की सुरक्षा के लिए सिर्फ कानून बनाना ही काफी है?


कानून हैं, पर क्या लागू होते हैं?

भारत में महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई कड़े कानून हैं:

  • IPC की धारा 354 (छेड़छाड़), 376 (बलात्कार)
  • POSH एक्ट (कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकने का कानून)
  • डॉमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट
  • और भी कई…

पर क्या हर पीड़िता को इंसाफ़ मिलता है?
कई मामलों में FIR तक नहीं लिखी जाती, पुलिस पीड़िता को ही दोषी ठहराती है।
कभी केस सालों खिंचता है, तो कभी आरोपी राजनीतिक या सामाजिक रसूख के दम पर बच निकलता है।


सुरक्षा एक सोच है, सिर्फ सिस्टम नहीं

महिलाओं की सुरक्षा सिर्फ CCTV, स्ट्रीट लाइट्स या पुलिस पेट्रोलिंग से नहीं आएगी, जब तक समाज की सोच नहीं बदलेगी।

  • एक लड़की के कपड़ों पर सवाल उठाना आसान है,
    पर लड़के की नीयत पर सवाल उठाना मुश्किल।
  • घर की बेटी को 7 बजे तक घर लौटने की हिदायत,
    पर बेटे को देर रात बाहर रहने की छूट।
  • “लड़के तो ऐसे ही होते हैं” जैसे जुमले,
    अपराध को सामान्य बना देते हैं।

बचपन से शुरू होनी चाहिए सुरक्षा की शिक्षा

अगर हमें असली बदलाव चाहिए, तो यह समझ स्कूल और घर से शुरू होनी चाहिए:

  • लड़कों को सिखाएं सम्मान देना, न कि लड़कियों को डरना
  • बच्चों को बताएं कि ना मतलब ना होता है – हर हाल में।
  • स्कूलों में जेंडर सेंसिटिविटी और क़ानूनी जानकारी देना ज़रूरी है।
  • माता-पिता को बेटियों की नहीं, बेटों की परवरिश पर ज़्यादा ध्यान देना होगा।

समाज को साथ आना होगा

  • पड़ोसी अगर किसी महिला को परेशान होता देखे, तो चुप न रहे।
  • ऑफिस में कोई महिला असहज महसूस कर रही हो, तो मज़ाक न उड़ाएं।
  • सोशल मीडिया पर महिलाओं की ट्रोलिंग, गाली-गलौच को “एंटरटेनमेंट” न मानें।

सुरक्षा कानून से नहीं, सामूहिक ज़िम्मेदारी से आती है।


निष्कर्ष

महिलाओं की सुरक्षा सिर्फ एक सरकारी एजेंडा नहीं, हम सबकी सामाजिक जिम्मेदारी है
कानून ज़रूरी हैं, लेकिन अगर सोच नहीं बदली, तो कानून भी सिर्फ किताबों में रह जाएंगे।

सुरक्षा तब होगी, जब हर लड़की बेझिझक कह सके – “मैं अकेली नहीं हूँ, समाज मेरे साथ है।”

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