भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन जब चुनाव का मौसम आता है, तो मुद्दे गायब हो जाते हैं और धर्म व जाति की राजनीति सिर उठाने लगती है।
हर पार्टी का एजेंडा होता है — “किस जाति का वोट बैंक साथ है?”, “धार्मिक भावनाएं किस ओर झुकी हैं?”
तो सवाल उठता है — क्या हमारे वोट की कीमत सिर्फ धर्म और जाति तक ही सीमित रह गई है? और अगर हां, तो इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का रास्ता कब और कैसे मिलेगा?
इतिहास क्या कहता है?
आजादी के बाद से ही भारतीय राजनीति में जातिगत समीकरण एक अहम भूमिका निभाते आए हैं।
- कुछ पार्टियाँ दलितों या पिछड़ों की आवाज़ बनकर उभरीं,
- तो कुछ ने धार्मिक भावनाओं को भुनाकर समर्थन हासिल किया।
- चुनाव आते ही मंदिर, मस्जिद, जात-पांत चर्चा में आ जाते हैं,
जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, बेरोज़गारी जैसे मुद्दे कहीं पीछे छूट जाते हैं।
क्या यह समाज को बाँट रहा है?
बिलकुल!
जब नेता धर्म और जाति के नाम पर लोगों को बाँटते हैं, तो वे मतदाता नहीं, समूहों में बँटे अनुयायी बन जाते हैं।
- लोग उम्मीदवार की योग्यता नहीं, उसकी जाति या धर्म देखकर वोट करते हैं।
- इससे अयोग्य लोग सत्ता में आते हैं, और जनता के असली मुद्दे अनसुने रह जाते हैं।
- समाज में संदेह, भेदभाव और हिंसा की भावनाएं पनपने लगती हैं।
यह न केवल राजनीति को दूषित करता है, बल्कि समाज की एकता को भी खतरे में डालता है।
क्या बदलाव की कोई उम्मीद है?
हाँ, और वो जनता के जागरूक होने से ही संभव है।
हाल के वर्षों में कुछ सकारात्मक संकेत भी देखे गए हैं:
- युवा वोटर अब रोज़गार, शिक्षा, और विकास जैसे मुद्दों पर बात करने लगे हैं।
- सोशल मीडिया के ज़रिए फैक्ट-चेकिंग और जागरूकता बढ़ रही है।
- कुछ जगहों पर उम्मीदवारों को जाति-धर्म से ऊपर उठकर वोट मिला है।
ये छोटे कदम ही बड़े बदलाव की ओर इशारा करते हैं।
आगे का रास्ता क्या है?
क्या करें | क्यों करें |
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मुद्दों पर वोट करें, न कि पहचान पर | तभी असली लोकतंत्र मजबूत होगा |
उम्मीदवार की योग्यता और नीतियाँ देखें | नेतृत्व क्षमता का सही मूल्यांकन हो |
जातिगत/धार्मिक भाषणों को खारिज करें | नफरत से नहीं, सोच से बदलाव आएगा |
युवाओं को जागरूक करें | वे ही भविष्य के मतदाता और नेता हैं |
निष्कर्ष
धर्म और जाति हमारी पहचान का हिस्सा हो सकते हैं, लेकिन हमारे वोट का आधार नहीं।
जब तक हम खुद बदलाव नहीं लाते, तब तक नेता वही कार्ड खेलते रहेंगे।
अगर हम चाहते हैं कि अगली पीढ़ी एक बेहतर भारत में जिए, तो हमें चुनावी सोच में बदलाव लाना होगा।
विकास की राजनीति ही देश का भविष्य है — न कि पहचान की।