क्या सोशल मीडिया समाज को जोड़ रहा है या तोड़ रहा है?

जिस दौर में हम जी रहे हैं, वहां “ऑनलाइन” होना ही जीवन का एक हिस्सा बन चुका है। सुबह की शुरुआत इंस्टाग्राम से होती है और रात व्हाट्सएप स्टेटस चेक करते हुए बीतती है। लेकिन सवाल ये है — क्या सोशल मीडिया हमें वाकई जोड़ रहा है या कहीं न कहीं चुपचाप तोड़ भी रहा है?


सोशल मीडिया: एक ताकतवर माध्यम

सोशल मीडिया का मूल उद्देश्य था — लोगों को जोड़ना, संवाद बनाना और जानकारी साझा करना। और सच कहें तो इसमें ये बहुत हद तक सफल भी रहा है:

  • विदेश में बैठे रिश्तेदार से बात करना अब एक क्लिक की दूरी पर है।
  • छोटे कारोबार अब इंस्टाग्राम या फेसबुक से अपने ग्राहकों तक पहुँच पा रहे हैं।
  • छात्र एक-दूसरे से नोट्स शेयर कर रहे हैं, ऑनलाइन क्लासेस ले रहे हैं।
  • आंदोलनों (जैसे #MeToo या #FarmersProtest) को आवाज़ मिली है।

इसलिए कहना गलत नहीं होगा कि सोशल मीडिया ने कई रिश्ते बनाए हैं और आवाज़ों को मंच दिया है।


लेकिन दूसरी तस्वीर भी है…

जहां एक ओर सोशल मीडिया जोड़ता है, वहीं ये तोड़ने की वजह भी बन रहा है।

  • फेक न्यूज़ और अफवाहें मिनटों में फैलती हैं, समाज में नफरत और भ्रम फैलाते हुए।
  • लोग ऑनलाइन लाइफ के दिखावे में इतना खो जाते हैं कि असली जीवन पीछे छूट जाता है।
  • साइबर बुलिंग, ट्रोलिंग और मानसिक तनाव अब आम हो चुके हैं।
  • परिवार में लोग पास होकर भी मोबाइल में उलझे रहते हैं, असल संवाद गायब होता जा रहा है।

क्या ये “कनेक्टेड” रहना हमें भीतर से अकेला बना रहा है?


जोड़ और तोड़ के बीच संतुलन

पहलूजोड़ रहा हैतोड़ रहा है
संवाददूर बैठे लोगों को जोड़ता हैपास के लोगों से दूरी बनाता है
जानकारीजागरूकता फैलाता हैगलत जानकारी से भ्रम फैलाता है
समाजअभियान, समर्थन और आवाज़ को प्लेटफॉर्म देता हैध्रुवीकरण और नफरत का कारण बनता है

इसलिए सोशल मीडिया एक चाकू की तरह है — सही इस्तेमाल करो तो मदद करता है, गलत किया तो चोट भी दे सकता है।


समाधान क्या है?

  • सोशल मीडिया डिटॉक्स अपनाएं – समय सीमा तय करें
  • सोच-समझकर शेयर करें – हर खबर पर तुरंत रिएक्ट न करें
  • ऑफलाइन रिश्तों को महत्व दें – फोन रखें, बातें करें
  • सोशल मीडिया को साधन समझें, जीवन नहीं

निष्कर्ष

सोशल मीडिया जोड़ भी सकता है और तोड़ भी सकता है — यह पूरी तरह हमारे हाथ में है।
अगर हम समझदारी से इसका उपयोग करें, तो यह संवाद और समाज का एक सशक्त उपकरण बन सकता है।
पर यदि हम इसमें उलझते चले गए, तो यह हमें धीरे-धीरे सामाजिक रूप से अलग-थलग भी कर सकता है।

जुड़े रहना जरूरी है — लेकिन सबसे पहले खुद से, फिर समाज से।

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