जब हम “सरकारी अस्पताल” शब्द सुनते हैं, तो हमारे मन में सबसे पहले जो छवि आती है, वह होती है — लंबी कतारें, उलझे हुए चेहरे, धीमी प्रक्रिया, और कहीं दूर बैठा एक थका हुआ डॉक्टर।
यह विडंबना है कि जो अस्पताल गरीब और जरूरतमंदों की सबसे बड़ी उम्मीद होते हैं, आज वही खुद इलाज के मोहताज नज़र आते हैं।
इलाज है, पर कैसे?
भारत में सरकारी अस्पतालों की संख्या और नेटवर्क भले ही बहुत बड़ा हो, लेकिन इनमें जो बुनियादी सुविधाएं मिलनी चाहिए, वो अक्सर कागज़ों तक सीमित होती हैं।
समस्याएं जो हर मरीज़ जानता है:
- घंटों लंबी लाइनें और धीमा रजिस्ट्रेशन प्रोसेस
- डॉक्टरों की भारी कमी
- दवाओं का अभाव – पर्ची तो मिलती है, दवा नहीं
- बेड और वेंटिलेटर की अनुपलब्धता
- साफ-सफाई और हाइजीन की बेहद खराब स्थिति
- टॉयलेट्स और पीने के पानी की सुविधा का अभाव
- अस्पताल के स्टाफ का व्यवहार कई बार असंवेदनशील
जिन पर सबसे ज़्यादा असर पड़ता है:
- गरीब और निम्न आय वर्ग, जिनके पास निजी अस्पताल में इलाज कराने का विकल्प नहीं
- गर्भवती महिलाएं, जिन्हें समय पर देखभाल की ज़रूरत होती है
- बुजुर्ग और गंभीर बीमारियों से पीड़ित मरीज
- ग्रामीण क्षेत्रों के लोग, जिनके पास एकमात्र सरकारी अस्पताल ही होता है
क्या कारण हैं इस बदहाली के?
- स्वास्थ्य बजट का कम हिस्सा अस्पतालों पर खर्च होना
- प्रशासनिक लापरवाही और भ्रष्टाचार
- अत्यधिक भीड़, लेकिन संसाधन सीमित
- आधुनिक उपकरणों और टेक्नोलॉजी की कमी
- स्टाफ की नियमित ट्रेनिंग और निरीक्षण की कमी
समाधान की ओर कदम
सरकार की ओर से:
- स्वास्थ्य बजट में बढ़ोतरी और पारदर्शी खर्च
- डॉक्टरों और नर्सों की भर्ती में तेजी और प्रशिक्षण
- सरकारी अस्पतालों का डिजिटलीकरण
- मोबाइल क्लिनिक और टेलीमेडिसिन जैसी योजनाओं को बढ़ावा
- हर जिले में कम से कम एक उच्च गुणवत्ता वाला सरकारी अस्पताल
समाज और नागरिकों की भूमिका:
- सरकारी अस्पतालों की निगरानी में भागीदारी
- स्वस्थ जीवनशैली अपनाकर अस्पताल पर बोझ कम करना
- कर्मचारियों को सम्मान देना, लेकिन जवाबदेही भी मांगना
- स्वास्थ्य सेवाओं पर खुलकर बात करना और जागरूकता फैलाना
निष्कर्ष:
सरकारी अस्पताल केवल एक इमारत नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की उम्मीद हैं।
उनकी हालत सुधारना केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि हम सबकी साझी सोच और प्रयासों का हिस्सा होना चाहिए।
“इलाज के लिए इंतज़ार नहीं, व्यवस्था में सुधार चाहिए।”
आज जरूरत है कि हम सरकारी अस्पतालों को “दया का केंद्र” नहीं, बल्कि गौरव का प्रतीक बनाएं।