“स्वच्छ भारत” का नारा तो हमने कई बार सुना है, लेकिन क्या हम वास्तव में अपनी बुनियादी सुविधाओं को लेकर सजग हैं?
जब बात आती है सार्वजनिक शौचालयों की, तो जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयां करती है।
शहर हो या गांव, रेलवे स्टेशन हो या बस अड्डा, बाजार हो या पार्क — कई जगहों पर शौचालय या तो होते नहीं हैं, और अगर होते हैं, तो उनकी हालत ऐसी होती है कि अंदर जाना किसी “साहसिक मिशन” से कम नहीं लगता।
क्या हैं मुख्य समस्याएं?
- साफ-सफाई की भारी कमी
– टॉयलेट गंदे, बदबूदार, और कीचड़ से भरे हुए होते हैं। - पानी की अनुपलब्धता
– हाथ धोने तो दूर, टॉयलेट फ्लश करने के लिए भी पानी नहीं होता। - महिलाओं के लिए असुविधा
– सुरक्षित और साफ़ महिला शौचालयों की बहुत कमी है। - रखरखाव की लापरवाही
– शौचालयों की नियमित सफाई और मरम्मत नहीं होती। - टॉयलेट पेपर या साबुन जैसी मूलभूत चीजों का न होना
– स्वच्छता की उम्मीद कहाँ से करें? - उपयोग के लिए शुल्क वसूली, लेकिन सेवा नहीं
– कई जगह लोग पैसा देते हैं, लेकिन सुविधा वैसी ही खराब रहती है।
इसका असर किस पर पड़ता है?
- महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चे सबसे ज़्यादा परेशान होते हैं।
- लोग खुले में शौच को मजबूर होते हैं – जिससे स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं।
- भीड़भाड़ वाले इलाकों में बदबू और संक्रमण फैलता है।
- देश की छवि पर भी नकारात्मक असर पड़ता है, खासकर पर्यटन स्थलों पर।
समाधान क्या हो सकते हैं?
प्रशासनिक उपाय:
- हर इलाके में सार्वजनिक शौचालयों की संख्या बढ़ाना।
- रखरखाव के लिए नियमित स्टाफ और मॉनिटरिंग।
- सेनेटरी वेंडिंग मशीन, हैंडवॉश और स्वच्छ पानी की व्यवस्था।
- महिलाओं के लिए विशेष सुविधाएं और सुरक्षा सुनिश्चित करना।
- निजी कंपनियों और NGOs को PPP मॉडल में जोड़ना।
नागरिकों की भूमिका:
- शौचालय का सही उपयोग और गंदगी न फैलाना
- शिकायत मिलने पर संबंधित अधिकारियों को रिपोर्ट करना
- सफाईकर्मियों का सम्मान करना और सहयोग देना
- अपने आसपास सफाई को लेकर जागरूकता फैलाना
निष्कर्ष:
सार्वजनिक शौचालय सिर्फ एक सुविधा नहीं, यह नागरिक सम्मान, स्वास्थ्य और स्वच्छता का संकेत है।
जब तक हम इसे केवल “नाम की चीज़” समझते रहेंगे, तब तक “स्वच्छ भारत” केवल पोस्टर और भाषणों तक ही सीमित रहेगा।
आइए, मिलकर यह तय करें कि शौचालय हर किसी के लिए उपलब्ध हो — साफ, सुरक्षित और सम्मानजनक।
“जहां स्वच्छ शौचालय, वहां स्वस्थ समाज।”